वे भूंडी सम्पन्नता का प्रदर्शन करते हैं और विदेशी संस्कृति के क्रीत दास बनते जा रहे हैं | भोगवादी व्यवस्था इन मण्डलियों में चरम परिणित पर पहुँच चुकी है भले ही वह समाज सेवा और विपन्नता उन्मूलन की चादर ओढ़े हुये हों | ' माटी ' भारत की उभरती प्रतिभा को जीवन्त आदर्शों की ऊर्जा से अनुप्रेरित करने के लिये आगे आयी है | प्रतिभा अपने में देश काल और प्रस्तार की सीमाओं से परे होती है उसे कटघरे में बांधकर नहीं रखा जा सकता ,पर उसे यदि मानव कल्याण की ओर प्रेरित कर दिया जाये तो उसमें अपार संम्भावनायें छिपी रहती हैं | यदि प्रेरक शक्ति बचकाने चिन्तन की उपज हो और यदि उसमें इन्द्रिय विलास का रसायन घुला हो तो प्रतिभा मानव जाति के लिये वरदान की जगह अभिशाप भी बन सकती है | अन्तर्राष्ट्रीय जगत में इतने उदाहरण हैं नकारात्मक चिन्तन और नकारात्मक शक्ति प्रयोग के जिन्होनें मानव जाति का अकल्पनीय अहित किया है | भारत के सन्दर्भ में भी इस प्रकार के अनेक खलनायक और चरवाकीय चिन्तक पाये जाते हैं पर भारत की सबसे अनूठी विशेषता रही है पथ भ्रमित विस्फोटक प्रतिभा पर कल्याणकारी मानवीय मूल्य पद्धति का नियन्त्रण | यह मूल पद्धति धर्म ,नैतिकता ,आत्माहुति ,और तपश्चरण आदि कई नामों से व्यक्त होती रही है | परतन्त्रता के काल में एक लम्बे दौर से गुजरने के बाद भारतीय जीवन मूल्यों की चमक जब कुछ धीमी पडी थी तब इसे फिर से प्रच्छालन पद्धति द्वारा बंकिम चन्द्र , राम मोहन राय ,सुब्रमण्यम भारती आदि आदि ने प्रांजलता प्रदान की थी और फिर तो महापुरुषों का एक युग ही शुरू हो गया | बलिदान ,त्याग और आत्म उत्सर्ग की होड़ लग गयी | राष्ट्रीय गौरव के लिये सब कुछ निछावर करने की भारतीय ऋषि परम्परा अपने सम्पूर्ण वेग से उभर पडी | पर आज स्वतन्त्रता के बाद एक बार फिर हमारे जीवन की ,हमारे जीवन मूल्यों की वेग मयी धारा शैवाल भरे वर्तुल चक्रों में फंस गयी है | हम हीन भाव से ग्रस्त हो रहे हैं | हमारी मातायें ,बहनें ,बेटियां नारी शरीर के सौन्दर्य का बाजारीकरण मन्त्र अपनानें लग गयी हैं | तभी तो कविवर पन्त को लिखना पड़ा " आधुनिके ,तुम और सभी कुछ एक नहीं तुम नारी |"
भारत में एक लम्बे काल से कार्यरत कई प्रकाशन मनोभूमि में नयी ऊर्जा का लाने का काम नहीं कर रहे हैं